15 February 2016

इक न इक दिन देंगे आप दस्तकें दर पे तरस की तरह ,मुकुल दवे "चातक "


इक   न   इक  दिन  देंगे आप दस्तकें दर पे तरस की तरह ,
हम  अश्क बन के गिरेगेँ आप की प्यास की लहर की तरह ,

जब    सामने   तू   है    पर्दे    को   चेहरे  पे  पड़ा  रहने    दे  ,
उठेगा   पर्दा   निगाह   होगी   सँवरती    सहर    की    तरह ,

मेरे    वजूद   के   आसपास    ये   कौन  है  जो  मिलता  है ,
तू  भी  हयात  है  किताब सा  आईना है  समन्दर की  तरह ,

आज  सरेराह  कोई चेहरा लगा के निकला, ढूँढ न  सका में ,
खुद को  पा  न  शका  तुझे ढूँढता रहा द्स्त नगर  की तरह ,

मिला  न  पता खुदा जाने आँखों  में क्या फैला था दूर तक ,
कोई नक्शे पा न देखा बुला रहा जिसे खुदा के दर  की तरह

मुकुल दवे "चातक "

द्स्त नगर-हाथ फैलाये हुए//हयात-जिंदगी//सहरसुबह
 ,


13 February 2016

बदन जलके खाक हुआ ,रूह की जबाँ से पुकार के आजमायें हम ,मुकुल दवे "चातक"


बदन  जलके  खाक  हुआ , रूह  की  जबाँ  से पुकार के आजमायें  हम ,
वो मस्जिदो मंदिर में ढूँढ़ते  रहे,किस तरह इसका दर खट्खटायें  हम ,

हे  पीरे  मैकदा  आपकी  महफ़िल  में  मेरी  खामोशी  तकसीर  हो  गई ,
मस्जिद  मंदिर का  दर बन्द था ,किस दर पे जाके  खता गिनायें  हम ,

खाक  उड़ाने  बाद  मिल  जाऊँगा  मिट्टी  में  तो हो   जाऊंगा  मिट्टीका
सिर्फ  इसलिए  जागता  हूँ  जो  मिट्टी  से  जुदा  है उनको  जगायें  हम ,

तुम्हारे  दर  पे  सर  रखना  था  रख  दिया,  बन्दे पे  क्यों  इल्जाम  है ,
गर  खुदा  खुद  से  पर्दा  उठायें  तो,  दस्ते  दुआ से  नजर  उठायें  हम ,

हे   नाखुदा   तूफाँ   उठा   शांत  होनेके   बाद   सबसे  किनारे  हो  गये ,
जिंदगी की  आखिर  जहमत  उठाने  बाद , गुबारे कारवाँ दिखायें  हम

मुकुल दवे "चातक"

पीरे मैकदा-शराबखाना का बुजुर्ग//तकसीर-अपराध//
दस्ते दुआ-दुआ का हाथ //नाखुदा-माजी//गुबारे कारवाँ-कारवाँ-धूल

11 February 2016

सुबह का सूरज के चेहरा की चमकती रोशनी से उभरने दे मुझे ,मुकुल द्वे "चातक "


सुबह  का  सूरज  के  चेहरा  की  चमकती  रोशनी  से  उभरने दे मुझे ,
अँधेरा  बहुत  था  मगर  हुनर से सुबह का सुनेहरी रंग  भरने  दे मुझे ,

आज  ऐसा  क्या  है  की  तुम्हारे  शहर  का  मौसम बड़ा  सुहाना लगे ,
तेरी  खन  खन ,चूड़ियाँ की आवाज चुराके सराबों में बिखरने  दे मुझे ,

मायुस  तुम  ना  होना,  हँसी  ख़ुशी  से  बिछड़ना   है   बिछड़    जाना ,
वक्त  की  शाम  हो  जाये  उसके  पहले  तेरी आँखों में उतरने दे मुझे ,

मुसाफिर  हूँ  फिरभी  न  जाने  क्यूँ  लगता है की जिंदगी थम गई हो ,
ढूढता  फिरता  रहँता   हूँ  खुदा की  छबि  में  फिरभी  पुकारने  दे मुझे ,

कैसा दौर है जहर पी चूका हूँ फिरभी जिंदगी की दुआ में तेरी असर हो ,
कहाँ था तुझे  दूर  जा के ,दुआएँ मुझे न दो,सजाओं में गुजरने दे मुझे

मुकुल द्वे "चातक "

सराबों-मृगतृष्णा

9 February 2016

छलकती है जो आँख निगाहो से शराब की ,मुकुल द्वे "चातक "


छलकती    है    जो     आँख     निगाहो    से   शराब    की ,
निगाहे-जाम    में   घोल    रही    है    कातिले-शबाब   की ,

लाख     कोशिश    से    हुश्न    पे    पर्दा   कर    न    शके ,
गुजरती   है   जहाँ   से   लगती   है   आग   आफताब  की ,

दागे-मुहब्बत   का    दिलमें     है     आलम     इस   तरह ,
छलकती है महकती कैफी  साँसे , करे न कोई अजाब की ,

उलझे   उलझे   जज्बात   है   तु   बस   जलाना  न   छोड़ ,
ईश्क  ख़ुदा  है आजमाना  न  छोड़ , ताब  है  महताब  की ,

जुस्तजू-हुश्न  का   जिक्र   क्या , तड़प  के  रूह  रह   गई ,
जिंदगी में आई वो,महकती खुशबू कैद कर गई गुलाबकी

मुकुल द्वे "चातक "

शबाब-हुश्न //आफताब -सूर्य//अजाब-गुनाह का ख्याल ,
ताब-तेज/नूर //महताब-चाँद //

8 February 2016

इबादत और मेरी मुराद के दरमियाँ खुदा का चेहरा किताब सी रही ,मुकुल द्वे "चातक "

इबादत  और  मेरी  मुराद  के  दरमियाँ  खुदा का  चेहरा किताब  सी  रही ,
लोंग  जो  मिले  मुझसा  रहा , करम  में  ढूँढा  खुदी  से  रोशनी  सी   रही ,

क्या   कहूँ   शहर  के   हर   आदमी   गूँगों  की  तरह  कुछ  नहीं    कहता ,
हैरत    है    हर   शख्स   की   आँखो   में  सराबों  की  धनक रची सी  रही ,

क्या  तमाशा है  शीशे की  इमारत में  हर  शख्स  शीशे  की  तरह   मिला ,
अक्सर  टूटने  के  बहाने  बहुत , हर  जुल्म  में  जमीनें  सजा  देती   रही ,

कहर  में  सुलगता  आदमी   मशाल  की  तरह  बस्तियों में  घूमता  रहा ,
तीरगी में जलाके चल दिया ,शहर में चिरागों के धूआँ की जिंदगी सी रही,

बस  कोई  मसीहा  लौट  आये , ये  आसके  दिये  चौखट पे जलाके    रखे ,
कौन कातिल किसका सब के हाथ में खंजर,  इन्तहा की तिश्नगी सी रही

मुकुल द्वे "चातक "

इबादत-पूजा//करम -दया//सराबों-मृगतृष्णा//कहर-प्रकोप//
इन्तहा-अंत//तिश्नगी-प्यास//तीरगी-अंधकार ,

7 February 2016

सारी निगाहों से दूर एक दुनिया बसाई थी ,मुकुल द्वे "चातक'


सारी   निगाहों  से   दूर   एक   दुनिया   बसाई    थी ,
ना मेरी , ना तुम्हारी थी ,सिर्फ ख्वाबों में सजाई  थी ,

में  कभी  सोचता  हूँ  की  मुझे  तेरी  तलाश क्यों  है ,
घूमता रहा  मगर  तुझे  माँगना खैरात में मनाई थी ,

कहीं दो राहे पे जिंदगी है ,न जुस्तजू ,न कोई आरजू ,
ये  शख्स  मर चूका  है  फिरभी लाश क्यों जगाई थी ,

ये खेल सचमुच क्या राजा-वजीर-फौज प्यादा का है ,
मोहरा इसका चलता है जो चाल दौलत से चलाई थी ,

हम सचमुच जो जिंदगी ढूँढ़ते है अब कहीं भी नहीं है ,
अभी  गहरा सुकून  है  की तुझे  ख्वाबों में बसाई  थी

मुकुल द्वे "चातक'

5 February 2016

मंजिले दिलकी बहोत फिरभी निशाँ बना गया कोई ,मुकुल दवे "चातक "


मंजिले   दिलकी    बहुत    फिरभी   निशाँ   बना  गया  कोई ,
बिखरी वो  टूटकर   खुदको  परोया  माला में सजा गया कोई ,

घर  का   दर   खुला   रखते ,  बिछड़ ने  के  भी तरीके होते है
हैरत  है  अक्सर  कहते  है मेरे ,मगर दास्ताँ जला गया कोई ,

वो  मौसम , गुलाबो की  खुशबू   हवाओं में   बिखर   जाएगी ,
याद  तो  होगा  तुझे  मगर  मुझे  अजाबों में  रुला गया कोई ,

सुकून  कहीं  इक  था  की  प्यास  होगी  समंदर रूह की तरह ,
क्यों   मुझे   तिश्नगी  दी ,  बददुआ में   गिरा   गया     कोई ,

एसी   आग   रहगुजर  में   बरसी   सारे   मंजर  झुलस   गए
भूला घर ओरों ने रास्ता दिखा के मेरी दांस्तां सुना गया कोई ,

मुकुल दवे "चातक "

अजाबों-एतनाऐ;दुःख //तिश्नगी-प्यास //झुलस-દાઝવું